प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 5
प्राचीन भारत में नारी की स्थिति
(Condition of Women in Ancient India)
प्रश्न- प्राचीन भारतीय समाज में नारी की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
अथवा
प्राचीन भारत में स्त्रियों की आर्थिक स्थिति की विवेचना कीजिए।
अथवा
प्राचीन भारत में महिलाओं की दशा का वर्णन कीजिए।
अथवा
प्राचीन काल में नारियों की स्थिति का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. हड़प्पा काल में नारियों की क्या स्थिति थी?
2. वैदिक काल में नारी की दशा का वर्णन कीजिए।
3. पूर्व मध्य काल में नारी का क्या स्तर था?
4. प्राचीन भारत में नारी की दशा का वर्णन कीजिए।
अथवा
प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति का मूल्यांकन कीजिए।
5. प्राचीन समाज में स्त्रियों की क्या दशा थी? उल्लेख कीजिए।
6. "प्राचीन काल में स्त्रियों का स्थान सामान्यतया ऊँचा था।" क्या आप इस कथन से सहमत
हैं? अपने विचार तर्क सहित उल्लेख कीजिए।
अथवा
"प्राचीन काल में स्त्रियों का स्थान सामान्यतः ऊँचा था। अपने विचारों का तर्क सहित उल्लेख कीजिए।
7. किस स्त्री दार्शनिक ने उपनिषद काल में याज्ञवलक्य को वाद-विवाद में चुनौती दी थी?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज में नारी का स्थान
मानव जीवन के रथ के पुरुष और स्त्री दो पहिए हैं और इन दोनों के आपसी सम्बन्धों से ही रथ संचालन होता है। संसार के विभिन्न देशों में विभिन्न समयों पर स्त्रियों का अलग-अलग स्थान रहा है। प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान अत्यन्त गौरवपूर्ण था। माता, पत्नी और पुत्री के रूप में वे सर्वत्र पूज्यनीय थीं, परन्तु समय-समय पर स्त्रियों की स्थिति गिरती गयी और आज वह भोगविलास की सामग्री मात्र बना दी गयी। राडसन ने अपने शब्दों में स्त्रियों के लिए कहा “स्त्रियों ने ही संस्कृति की नींव डाली उन्होंने मारे-मारे भटकते हुए पुरुषों का हाथ पकड़ कर स्थिर जीवन अर्थात् घर में बसाया।"
हड़प्पा में स्त्रियों की दशा - हड़प्पा काल में ऐसा लगता है कि स्त्रियों को भी सम्मानीय स्थान प्राप्त था। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त सामग्रियों के आधार पर कहा जाता है कि मातृदेवी की उपासना की जाया करती थी। समस्त प्राचीन मान्यतायें मातृ शक्ति की उपासक मिली है। आज भी द्रविड़ भाषा में नारी के लिए के लिए सर्वमान्य सम्बोधन शब्द का 'आम्माइल' या 'अम्मा' है। खुदाई में मातृदेवी की बहुत सी छोटी-छोटी मूर्तियाँ मिली हैं। आर०सी० मजूमदार के अनुसार स्पष्ट है कि आधुनिक हिन्दू धर्म अधिक अंश में सिन्धु घाटी की संस्कृति का ऋणी है। सिन्धु की तरायी की प्राचीन संस्कृति और आज के सिन्धु धर्म में घना सम्बन्ध है।
वैदिक काल में नारी की स्थिति - वैदिक काल में स्त्री समाज रूपी रथ के एक पहिये के समान थी। वैदिककालीन समाज में नारियों का स्थान तथा पद बहुत ऊंचा था। मानसिक तथा धार्मिक नेतृत्व में नारियों का अच्छा सहयोग रहता था, इस समय पर्दे की प्रथा नहीं थी, शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिए भी खुले हुए थे। धार्मिक साहित्य में रुचि रखने वाली नारियों के लिए किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी, कई ऋषि नारियों की रचनायें ऋग्वेद संहिता में आज भी देखने को मिलती है। डॉ० रामकिशोर सिंह तथा डॉ० श्रीमती ऊषा यादव के शब्दों में, वैदिक काल में जहां मंत्रों को बनाने वाली ऋषि कन्यायें, वहीं क्रूर स्वभाव की नारियाँ भी थीं। परन्तु कन्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक स्त्री जाति का बड़ा सम्मान व सत्कार था, जो कन्या पितृकुल में जीवन भर अविवाहित रहती थीं, उसे पितृकुल की संपत्ति में ही अंश मिलता था, इन्द्राणी जैसे आमरण माता-पिता के साथ रहने वाली पुत्री पितृकुल से ही अंश के लिए प्रार्थना करती है (2-17-7)। वैदिक आर्य कमनीय कन्या की प्राप्ति के लिए याचना करते हैं। ऋग्वेद के नवम मंडल में ऊषा देवी से आर्य कमनीय स्त्री एवं कमनीय कन्या की याचना करता है।
वैदिक काल में साहस तथा वीरता में भी नारियाँ काफी आगे थी उदाहरणार्थ विप्पला नामक स्त्री लड़ाई में गई तथा जब वह घायल हो गई, तो अश्विनों ने उसकी चिकित्सा भी की थी। पुत्री का जब जन्म होता था तब आर्य लोग को दुःखी नहीं होते थे। इस समय पुत्री का जन्म हेय तथा घृणा की दृष्टि से नहीं देखा जाता था क्योंकि ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर पुत्रियों की दीर्घायु के लिए कामना का उल्लेख है। पुत्र के अभाव में पुत्री को ही पुत्र सदृश के रूप में उस समय स्वीकार किया जाता था। नारियों द्वारा पुत्र प्राप्त करने के लिए कई उदाहरण भी हमें वैदिक साहित्य में देखने को मिलते हैं। पत्नी के रूप में वे पुरुष की : सहधर्मिणी तथा अर्द्धागिनी के रूप में देखी जाती थीं। उसके बिना कोई धार्मिक कृत्य संपन्न नहीं होता था। वे अपने पतियों के साथ यज्ञादि करतीं, दान देतीं, सोमरस बनाती तथा स्वयं भी पीती थी। समारोहों एवं उत्सवों के अवसरों पर विशेष बनावट श्रृंगार भी करती थीं। प्रेमियों का चित्त प्रसन्न करने में नारियाँ कुशल थीं (ऋग्वेद 1-21-10-1)। यह बात स्पष्ट हो जाती हैं कि इस युग की नारियाँ सजावट, शृंगार आदि से पूर्णतः परिचित ही नहीं थी वरन् वे उससे दक्ष भी थी। नारियाँ अपने बालों को कंघी द्वारा संवारती थी और तेल से उन्हें सजाती भी थी। घर की पत्नी का परिवार के सदस्यों पर प्रभाव था, उसकी आज्ञा का पालन किया जाता था। भ्रातृहीन लड़कियों की दुर्दशा का संकेत भी ऋग्वेद से प्राप्त होता है, जिसके एक मंत्र में एक धनहीन एवं भ्रातृहीन लड़की का उल्लेख है, जो दुराचार से अपना पेट पालती थी (ऋग्वेद 1-124- 711 )। सास, जिठानी, नन्द, देवरानी के आपसी सम्बन्ध अच्छे थे। बहू अस्तित्व बनाये रखती थी, पति के घर जब आती थी तब वह लक्ष्मी के रूप में देखी जाती थी (ऋग्वेद 1 131-3115-43, 5114)। पति-पत्नी का साथ-साथ धार्मिक कार्य करना तथा अपनी सन्तान के साथ आनन्द करने का उदाहरण ऋग्वेद में देखने को मिलता है (ऋग्वेद 5-8।। तथा 1-105-210। पत्नी का आदर घर में कितना होना था एवं उसके अधिकार और कर्त्तव्य क्या थे? इन सबका सांकेतिक विवरण हमें ऋग्वेद में देखने को मिलता है। एक स्थल पर यह भी बताया गया है कि स्त्री ही घर का प्रबन्ध करती थी तथा अन्य कामों के अतिरिक्त वह कपड़ा भी बुना करती थी (ऋग्वेद 2-3-6, 2-18-4)। ऋग्वेद में ऊषा देवी के बारे में कहा गया है कि पति-पत्नी ही घर है, पत्नी ही गृहस्थी हैं, पत्नी ही आनन्द है।
नारियों का जैसा शारीरिक गठन होता था उसी आधार पर वे घरेलू कार्य करती थीं। जब तक कुमारी रहती थीं तब तक पिता के घर गृहस्थी के सब काम सीखतीं तथा उनमें महारत प्राप्त करती थीं एवं पिता के संरक्षण में रहती थी। जब विवाहित हो जाती थीं तब पति की देख-रेख में रहती थीं। नारियों को विवाह आदि की पूर्ण स्वतंत्रता थी, तरुण पुरुषों और स्त्रियों को मिलने-जुलने की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता थी, वे अपनी इच्छानुसार प्यार भी करते थे और विवाह भी करते थे। कुछ नारियाँ तो अपनी सुन्दरता पर फूले नहीं समाती थीं और अपने प्रेमियों के चित्त को लुभाने में बड़ी दक्ष थीं। -(ऋग्वेद 255, 7-55-5, 6, 810)
नारी का निदानात्मक रूप - इस समय नारियों के मानसिक विकास की ओर पूरा ध्यान दिया जाता था। ऋग्वेद में विश्ववरा, धोप्पा, अपाला, लोपामुद्रा आदि ऐसी परम विदुषी नारियों का उल्लेख है जिन्होंने वेद मंत्रों की रचना की थी।
विधवा नारी - उस समय विधवा नारियों की दशा अच्छी थी, विधवाओं का समाज में ऊंचा स्थान था। ऋग्वेद के मंत्रों से विधवा जीवन का ज्ञान हमें होता है। एक मंत्र में इस प्रकार कहा गया है- उठो स्त्री। तुम उसके पास खड़ी हो जिसका जीवन समाप्त हो चुका है। अपने पति से दूर हटकर जीविता के संसार में जाओ और उसकी पत्नी बनो जिसने तुम्हारा हाथ पकड़ा है और जो तुमसे विवाह करने को तैयार है।
उत्तर वैदिक काल में नारियों की स्थिति - इस काल में नारियों की स्थिति में अधिक परिवर्तन हो गये थे। इस युग में समाज में स्त्रियों की वैसी प्रतिष्ठा नहीं थी जिस प्रकार से ऋग्वैदिक काल में उनकी प्रतिष्ठा थी। उनसे उपनयन का अधिकार छीन लिया गया था, विवाह को छोड़कर उनकी उपस्थिति में अन्य सब संस्कार बिना वैदिक मंत्र के होते थे। लड़की का जन्म कष्ट सूचक रूप में देखा जाता था, उसे कृपाणाम् अर्थात् विपत्ति भी कहा गया, स्त्री एवं पुरुष की समानता की बात लुप्त होती जा रही थी, परन्तु नारी की शिक्षा का महत्व इस काल में भी ऋग्वैदिक काल के समान ही बना हुआ था। उनके शारीरिक बौद्धिक तथा सांस्कृतिक विकास पर इस समय विशेष रूप से ध्यान दिया गया था। उनको पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ नृत्य तथा संगीत की भी शिक्षा दी जाती थी। इस समय की नारी वाद्य यंत्रों के बजाने से बड़ी कुशल
थीं। उनको उच्च शिक्षा भी दी जाती थी क्योंकि धार्मिक ग्रन्थों में उस समय के उल्लेख भी मिलते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण एवं कोषतिक ब्राह्मण में मैत्रेयी गंधर्व गृहीता आदि विदुषी स्त्रियों के नाम भी उल्लेखनीय हैं। कुछ उल्लेख में तो स्त्री शिक्षकों के नाम भी हैं। कुछ वीरांगनाओं के उल्लेख भी हैं, जिन्होंने अपने पतियों के साथ युद्ध में भाग लिया था। उसकी स्थिति का पतन यहां तक हो गया कि उसका गणना मदिरा तथा द्युत क्रीड़ा के साथ होने लगी। उनको पुरुष के पतन के एक कारण में भी देखा जाने लगा, एक दिन ऐसा भी आया कि वह बामांगिनी होकर भी राजनीति में भाग लेने से वंचित कर दी गई। ऐसा परिवर्तन एक विद्वान के शब्दों में। अब समाज में नारियों को वह प्रतिष्ठा नहीं रह गई थी जोकि ऋग्वैदिक युग में थी। उसके लिए उपनयन का अधिकार नहीं रह गया था। कन्या का जन्म कष्ट का सूचक माना जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्र को स्वर्ग तुल्य सुख तथा कन्या को कृपाणम विपत्ति कहा गया।
शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे वे पुरुषों की ही भांति ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करती थीं। कुंवारी युवतियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन के लिए समान अवसर दिये जाते थे। इस काल की छात्राओं में निम्नलिखित दो वर्ग मुख्य थे-
1. ब्रह्मवादिनी - इस वर्ग में वे छात्रायें आती थीं जो अपने जीवन भर अध्यात्म व दर्शनशास्त्र का अध्ययन करती थीं। वेदों के साथ ही साथ कुछ छात्रायें मीमांसा में भी विशेष योग्यता प्राप्त करती थीं।
2. सद्योद्वाह या सद्योवधू - इस प्रकार की छात्रायें केवल विवाह के समय तक अर्थात् 15 या 16 वर्ष तक ही शिक्षा प्राप्त करती थी। विवाह के बाद ये ग्रहस्थ जीवन में मंत्रों, दैनिक तथा पाक्षिक स्तुतियाँ स्मरण किया करती थी तथा प्रातःकाल या सायंकाल वैदिक प्रार्थनायें किया करती थीं। निम्न श्लोक में सीता जी को दैनिक प्रार्थना करते हुए दिखलाया गया है।
सन्ध्या काल सना न्यायाध्रुव मैश्यति जानकी।
नदो चे मां शुभ जलां सन्धतर वार्षिनी ॥
एक विदुषी महिला ने 'थेरी गाथा' की रचना की थी। इस काव्य के अतिरिक्त संगीत तथा नृत्यकला में भी नारियों ने प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। मनु ने मनुस्मृति में नारियों को श्रद्धा व्यक्त की।
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।”
मनुस्मृति - हमारे भारतीय समाज में नारी को अच्छा स्थान दिया गया है। उसकी उन्नति परिवार की उन्नति समझी जाती है। यदि नारी पढ़ी-लिखी है तो वह पूरे अपने परिवार तथा पास-पड़ोस के वातावरण को अच्छा बना देती है।
सूत्रों, महाकाव्यों तथा स्मृतियों के युग में नारी की दशा - इन कालों में नारियों का सामाजिक स्तर साधारण रूप से तथा वैदिक काल के मुकाबले से उनकी स्थिति में हमें गिरावट दिखाई देती है। नारी शिक्षा का महत्व भी कम हो गया था। सती प्रथा जोर पकड़ने लगी थी। कुछ राजवंशों में नारियाँ पर्दे में रहने लगी थी। इन कालों में लड़कियों के विवाह की आयु भी कम हो गई थी। विधवा विवाह तथा नियोग की भी प्रथा बन्द हो गई थी। नारियों को पुरुषों के अनुशासन में रखने पर बल दिया जाने लगा था। पर्दे की प्रथा भी चल पड़ी थी। सूत्रकाल तथा स्मृतियों के कालों में नारियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कहीं-कहीं प्रतिबन्ध लगाया गया था। इन कालों में कश्मीर में रत्नादेवी, सूर्य मूर्ति और सुमन्य, कर्नाटक की रट्टादेवी उच्चकोटि की शासिकाएं कही जाती थीं। महाकाव्य काल (रामायण तथा महाभारतकालीन भारत) में पुत्रियों के मुकाबले में पुत्रों के जन्म पर अधिक खुशियाँ मनाई जाती थीं। पुत्र के प्राप्त होने पर उसके माता-पिता का जीवन सफल माना जाता था। कुछ स्थानों पर पुत्रियों को पुत्रों के बराबर माना जाता था। इस काल में नारियों के द्वारा किये गये कुछ महान कार्यों का उल्लेख आज भी देखने को मिलता है। भारतीय समाज में इन कालों में वेश्यावृत्ति का भी जन्म हो चुका था। समाज में इनको आदर की दृष्टि से देखा जाता था महाभारत काल में द्रोपदी के साथ जैसा व्यवहार किया गया वह नारी समाज के दृष्टिकोण से सभ्य नहीं था।
पूर्व मौर्यकाल, मौर्यकाल, गुप्तकाल तथा उत्तर गुप्तकाल में नारियों का सामाजिक स्तर- इन कालों में नारी की सामाजिक स्थिति में उतार-चढ़ाव आ गया। पूर्व मौर्यकालीन भारत में नारियों को हर प्रकार की स्वतंत्रता थी। उनका स्वाभाविक स्तर पिछले युगों के नारी स्तर के मुकाबले में उन्नत दशा में था। नारियाँ वाद-विवाद, धार्मिक गोष्ठियाँ एवं उत्सवों में समान रूप से भाग लिया करती थीं। पर्दे की प्रथा प्रचलित नहीं थी। नारियाँ भी विहार- यात्राएं, क्रीड़ा पर्यटन में भी भाग लिया करती थीं। राजकुल की नारियाँ बड़ी सज-धज के साथ सुन्दर भवनों में रहा करती थीं। उनकी सेवा के लिए दासियाँ भी होती थीं। गृहिणी रूप में नारियों का भारतीय प्राचीन समाज में बड़ा महत्व था। नारी के मातृ पद का भी गौरव महान था। महाकवि कालिदास की रचनाओं में नारी के महत्व की छाप दिखाई देती है।
राजपूत काल में नारियों का सामाजिक स्तर - राजपूत काल में नारियों की दशा में पिछले युगों की अपेक्षा के मुकाबले में कोई महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ। कुछ क्षेत्रों में उनकी स्थिति पहले की अपेक्षा गिर गई थी। सती प्रथा, पर्दा प्रथा एवं बाल विवाह का प्रचलन था। विधवा-विवाह वर्जित था फिर भी नारियाँ सुशिक्षित होती थीं। सामाजिक कार्यों में वे सक्रिय भाग लेती थीं परन्तु राजपूत काल में नारियों द्वारा शासन कार्य संभालने जाने के भी उदाहरण मिलते हैं। कश्मीर में दिद्दा एवं वारंगल में रुद्राम्बा नाम की रानियों ने शासन भी किया था।
पूर्व-मध्यकाल में नारी का स्तर - इस युग में नारियाँ उच्च शिक्षा भी प्राप्त करती थीं। इस काल की प्रसिद्ध नारियाँ रेखा, शशि, प्रभा, माधवी, अनु, लक्ष्मी बड़ी प्रसिद्ध थीं। पुरुषों के समान नारियाँ भी कविता लिखती थीं। प्रसिद्ध इतिहासकार अलवरूनी का कथन है 'सभी उच्चकुल, राजकुमारियाँ, राजमंत्रियों की पुत्रियाँ शिक्षित थीं तथा सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लिया करती थीं। कन्यायें संस्कृत पढ़ती थीं तथा खेल, नृत्य तथा चित्रकारी भी सीखा करती थीं। कुछ समय के पश्चात् उपनयन संस्कार बन्द कर दिया गया।
नारी के अनेक रूप - नारी के निम्न लिखित रूप प्राचीन भारतीय समाज में हमें देखने को मिलते हैं। उसके हर रूप में वह महत्वपूर्ण स्थान रखती है
नारी के बचपन का रूप - इस समय वह कन्या के रूप देखी जाती थी। उसको पढ़ाया-लिखाया जाता था। पढ़ने-लिखने के साथ उसको घरेलू समस्त कार्य करना भी सिखाये जाते थे। साथ ही साथ सीना, पिरोना, कपड़ों का काटना तथा कसीदाकारी भी सिखाई जाती थी। इस समय सिलाई मशीन का आविष्कार नहीं हुआ था। अतः कन्याओं को उनकी दादी, नानी आदि हाथ की हर प्रकार की सिलाइयाँ सिखाती थी। कन्या रूप के समय से ही कन्या एक योग्य पति प्राप्त करने की कामना करती थी। इस कार्य में उसके माता-पिता उसके लिए एक योग्य वर की खोज करके उसका विवाह बड़ी धूम-धाम से किया करते थे। अपनी हैसियत के अनुसार कन्या के माता-पिता अपनी पुत्री को आवश्यकता की समस्त वस्तुएँ दहेज के रूप में दिया करते थे।
पत्नी के रूप में नारी - जब लड़की जवान हो जाती थी तब उसका विवाह कर दिया जाता था। अब वह पत्नी के रूप में देखी जाती थी, पत्नी के रूप में उसका बड़ा महत्व था तथा अपने परिवार के सदस्यों की उन्नति तथा विकास की संपूर्ण जिम्मेदारी उसी पर थी। पत्नी के रूप में वह अपने पति के समस्त कार्यों में हाथ बँटाती थी। वे अपने पतियों से प्रेम करती थीं तथा उनकी आज्ञा के अनुसार कार्य करती थीं। छोटों के साथ उनका प्रेमपूर्ण व्यवहार था। अपने से बड़ों के साथ वे बड़ी नम्रता के साथ बातचीत करती थी तथा उनका सम्मान भी किया करती थीं।
माता के रूप में नारी - नारी का माता का रूप भी भारतीय समाज में बड़ी महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा जाता था। इस रूप में उसको अपनी सन्तान की देख-रेख करनी पड़ती थी। अपनी संतान को योग्य बनाये यह जिम्मेदारी भी उसी के कन्धों पर थी। राजपूतकालीन भारत में जब किसी माता का पुत्र रणभूमि में जाता था तो वही उसके माथे पर तिलक लगाती थी तथा विजय होकर लौटने की राह देखती थीं। पुत्र बिना माता के आशीर्वाद प्राप्त किये हुए रणभूमि में नहीं जाता था।
नारी का विधवा रूप - नारी का यह रूप उसके लिए दुःखदायक समझा जाता था। इस रूप में उसको केवल सादे वस्त्र धारण करने पड़ते थे। उसकी मांग में सिन्दूर नहीं भरा जाता था। यदि गृहस्थ जीवन में वह विधवा का रूप धारण करती थी तब भारतीय हिन्दू समाज में उसका मान रहता था। वह इस रूप में धार्मिक अनुष्ठानों में भाग नहीं लिया करती थी। विधवा अपनी संतान को छोड़कर समस्त लोगो में अंशुभ समझी जाती थी। किसी-किसी परिवार से उसके चारों ओर उदासीनता का वातावरण रहता था। विधवा होने पर यह अपने पति के घर ही रहती थी। अपने माता-पिता के घर वह नहीं जाया करती थी। किसी-किसी परिवार में विधवा नारियों के बाल मुड़ाने की भी प्रथा थी।
बाद के समय में नारियों के सामाजिक जीवन में गिरावट आ गई और विधवा होन पर वह अपने पुत्र के अधीन रही।
संपत्ति में नारी का अधिकार - प्राचीनकाल में नारी का स्त्री धन पर पूर्ण रूप से अधिकार था, जिसको अपनी इच्छा के अनुसार खर्च कर सकती थी। ऋग्वेद तथा स्मृति काल के युगों में यदि पति बिना संतान के मर जाये तब उसकी संपत्ति पर नारी का अधिकार था।
बाल-विवाह - प्राचीनकाल से जब लड़की 16 वर्ष की होती थी, तब उसका विवाह किया जाता था। परन्तु बाद में उसकी इस उम्र पर ध्यान नहीं दिया गया। बाल विवाह की प्रथा प्रचलित हो गई और छोटी ही उम्र की लड़कियों का विवाह होने लगा, जिसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा और अधिक संख्या में मौत की गोद में सोने लगी।
पाराशार स्मृति के अनुसार कन्याओं का विवाह 12 वर्ष में होने लगा था ऐसा इस कारण से हुआ, क्योंकि भारत पर विदेशी आक्रमण होने लगे थे और कई शताब्दियों तक भारत विदेशी आक्रमणों की जद में रहा। अपनी कन्याओं को विदेशियों से बचाने हेतु इस युग के निवासियों ने बाल-विवाह की प्रथा को अपना लिया। फिर इसका तेजी से विकास होने लगा।
पर्दा प्रथा - पूर्व मध्य युग में पर्दा प्रथा भी थी। बाणभट्ट के हर्षचरित्र से ज्ञात होता है कि राज्यश्री लाल रेशम का पर्दा अपने मुख पर डाला करती थी, जो इस बात का खुला हुआ सबूत है कि पर्दे की प्रथा इस युग में प्रचलित थी। भवभूति नाटक महावीर चरित्र से भी पर्दे की प्रथा का ज्ञान होता है। राम तथा सीता जब बाल्मीकि के सामने गये तब सीता जी ने पर्दा किया था। पर्दे की प्रथा का रिवाज विदेशी आक्रमणों के कारण हुआ। परन्तु पर्दे की प्रथा का प्रचार उन्हीं प्रदेशों में हुआ जिन पर यवन, शक, कुषाण, हूण आदि विदेशी जातियों के आक्रमण हुए थे। मध्य भारत और दक्षिणी भारत के इलाकों में पर्दे की प्रथा का चलन नहीं बढ़ा, इसी कारण अजन्ता और एलोरा की गुफाओं में जो नारियों की मूर्तियाँ बनाई गई हैं, उनके मुखड़े पर पर्दा दिखाई नहीं देता है। मुस्लिम काल में उत्तरी भारत के हिन्दुओं ने भी पर्दे को मुसलमान के समान अपना लिया था। उनकी नारियाँ तरुणावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक अपने पति और निकट संबंधियों को छोडकर सब लोगों से पर्दा किया करती थीं। उनको घरों में जनाने मकान में पुरुष नहीं जाया करते थे और पुरुष रानियों, राजकुमारियों और मालदार लोगों की सेवा करने के लिए भी नौकर रखे जाते थे। इनके लिए दासियाँ ही नौकर रखी जाती थीं। परन्तु निम्न वर्ग में परदे की प्रथा का चलन नहीं था। निम्न वर्ग में नारियाँ जब बाहर निकलती थीं तब वे चादर ओढ़कर घूंघट निकालकर चलती थीं।
सती प्रथा - पौराणिक साहित्य में हमें सती प्रथा के चलन का भी ज्ञान होता है परन्तु पूर्व मध्य युग में इस प्रथा का चलन अधिक रूप में था। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है। सातवीं शताब्दी में महाकवि बाणभट्ट तथा तांत्रिक वर्गों ने सती प्रथा को बन्द करने की आवाज उठाई, परन्तु इस प्रथा की रोकथाम नहीं हुई।
वेश्यावृत्ति - प्राचीन भारत में कुछ नारियाँ वेश्यावृत्ति धारण करती थीं। भारतीय समाज में इनका बड़ा महत्व था। इनके कोठे सभ्यता एवं संस्कृति के केन्द्र थे। ये सुन्दर और सभ्य होती थीं। गुप्तचर विभाग में भी नारियाँ रहती थीं। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि कुछ नारियाँ गुप्तचर विभाग में नौकरी करती थी। राज्य की छोटी से छोटी घटना का इनके द्वारा राजा को पता चल जाता था।
देवदासी - मंदिरों में जो लड़कियाँ नृत्य करती थीं। उनको देवदासी के नाम से पुकारा जाता था समाज में इनका अधिक महत्व था। इनका प्रमुख कार्य देवताओं की मूर्ति के सामने नृत्य करना और मंदिर की सफाई करना था। देवदासियाँ वे लड़कियाँ थीं जिनके माता-पिता उनको देवता के लिए मंदिरों में छोड़ जाते थे। इनका पालन-पोषण मंदिर के वातावरण में होता था।
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- प्रश्न- कर की क्या आवश्यकता है?
- प्रश्न- कर व्यवस्था की प्राचीनता पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- प्रवेश्य कर पर टिप्पणी लिखिये।
- प्रश्न- वैदिक युग से मौर्य युग तक अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- मौर्य काल की सिंचाई व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक कालीन कृषि पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- वैदिक काल में सिंचाई के साधनों एवं उपायों पर एक टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- उत्तर वैदिक कालीन कृषि व्यवस्था पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- भारत में आर्थिक श्रेणियों के संगठन तथा कार्यों की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- श्रेणी तथा निगम पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- श्रेणी धर्म से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए
- प्रश्न- श्रेणियों के क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिककालीन श्रेणी संगठन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा की तुलना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उच्च शिक्षा केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- "विभिन्न भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों की जड़ें उपनिषद में हैं।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।